हमारे बारे में एवं हमारी विचारधारा
गौतम बुध्दा एजुकेशनल एंड सोशल वेलफेयर सोसाइटी, इंदौर का गठन श्री नीरज कुमार राठौर के नेतृत्व में दिनांक 6 जुलाई 2017 को इंदौर में पंजीयन किया गया है. इसका गठन सर्वजन हिताय एवं सर्वजन सुखाय के सिध्धांत के देखते हुए किया गया है.
संस्था की विचारधारा-
किसी भी जाति धर्म रंग नस्ल वंश क्षेत्र देश भाषा वेशभूषा या खानपान के तरीके से नफरत न करें ! चिंतन करें यदि हम उस परिवेश में होते तब हम क्या करते ? अक्सर हम हर चीज को अपने नजरिये से देखते हैं ,दूसरों के नजरिये से भी दुनिया को देखने की कोशिश करें !! हम हर चीज को हर नजरिये से देखने की कोशिश करते है ! हमने सब पूर्वाग्रह और दुराग्रह त्याग दिए हैं ! सारा राग और द्वेष मिट चूका है ! इसलिए हम जाति धर्म सम्प्रदाय नस्ल भाषा देश आदि बन्धनों से ऊपर उठकर चिंतन मनन करना चाहते है ! कुछ लोग हमें जाति धर्म सम्प्रदाय के तंग नजरिये से देखते हैं मग़र हम विश्व मानवता के कल्याण के लिए अन्धविश्वास और अज्ञान के विरुद्ध कार्य कर रहे है ! हमारा मानना है जाति धर्म नस्ल सम्प्रदाय से ऊपर उठकर जब तक हम विश्व स्तरीय चिंतन नहीं करेंगे तब तक न हम सुखी रहेंगे न दूसरों को सुखी देख पाएंगे !
भाषा का विवाद दुनिया में व हमारे देश में बड़ा गम्भीर विवाद है ! हमारा मानना है कि भाषा साधन है न की साध्य है ! भाषा या लिपि पवित्र या अपवित्र , वैज्ञानिक या अवैज्ञानिक नहीं होती है ! विश्व में हजारों भाषाएँ और हजारों लिपियाँ है सबकी अपनी अपनी खूबियां और कमियां है ! यदि विश्व की सभी भाषाओँ की लिपि एक ही हो जाए तो बहुत सी समस्याऐं हल हो जाए ! उदाहरण के लिए यदि भारत की सभी भाषाओँ को देवनागरी या रोमन में लिखा जाए तो हम सभी पंजाबी गुजराती बंगला तेलगु उड़िया ऊर्दू सिंधी आदि भाषाएँ आसानी से सीख़ जाएंगे ! मग़र हम सभी पूर्वजों की प्राचीनता के अहंकार में जी रहे हैं अतः हम अपनी अपनी लिपि से चिपके हुए हैं! रोमन में लिखने के कई लाभ है ! केवल 26 अक्षर हैं मात्राओं या आधे अक्षर नहीं है ! हम सभी को अपनी अपनी भाषाओँ से प्रेम है !
मगर हमें इस सच्चाई को नहीं भूलना चाहिए कि इंग्लिश एक विश्व भाषा है ! ज्ञान विज्ञान की भाषा है! अंग्रेजी के विरोध ने उत्तर भारतीयों का बहुत नुकशान किया है!
अगर हमें किसी भी विषय का विश्व स्तरीय ज्ञान चाहिए तो हमें इंग्लिश का ज्ञान होना बहुत जरूरी है ! विश्व की सभी भाषाओँ की अनमोल किताबों का अनुवाद तुरन्त इंग्लिश में उपलब्ध हो जाता है ! क्षेत्रीय भाषा में उनका अनुवाद शायद ही मिल पाता है!
अंग्रेजों ने हमें अंग्रेजी देकर हम पर बहुत बड़ा उपकार किया है ! यदि अंग्रेज हमें अंग्रेजी के माध्यम से यूरोपीय ज्ञान विज्ञान या योरूपीय राष्ट्रवाद लोकतन्त्र से न जोड़ते तो हम कभी भी न अंग्रेजों से आजाद हो पाते न भारत इतना विशाल एक राष्ट्र बन पाता !
कुछ लोग मैकाले को दिन रात गाली देते हैं उसने क्या खूब कहा था भारतीय चाहे चमड़ी से काले रहे मग़र मन से अंग्रेज या यूरोपियन की तरह ज्ञान विज्ञान से लबरेज रहे !
वैसे अंग्रेजों ने चाहे हमारे पूर्वजों का शोषण किया मग़र उन्होंने हमें अनजाने में ही सही हमें आधुनिक बना दिया ! कुछ लोग अंग्रेजी पढ़े लिखों को धर्म संस्कृति या राष्ट्र विरोधी मानते है ! जो इंसान विश्व स्तरीय ज्ञान विज्ञान का अध्ययन और अनुभव करेगा वह हमारी तरह कुए का मेडक बनकर तो नहीं रह सकता है न जी !
जब हमें अपने कम बौद्धिक स्तर की वजह से विश्व स्तरीय विद्वानों की बात समझ में नहीं आती है तब हम उन्हें देश धर्म संस्कृति का दुश्मन समझ बैठते हैं !
हमें अपनी राष्ट्रिय और क्षेत्रीय भाषाओँ का सम्मान करते हुए भी इंग्लिश में महारत हासिल करना चाहिए ताकि हम अपने देश और समाज को विश्व स्तरीय ज्ञान विज्ञान से जोड़ सकें !
आज हम ज्ञान के दो सबसे बड़े शत्रुओं के बारे में समझेंगे ! मानव जिस जाति, धर्म, सम्प्रदाय,संस्कृति, भाषा ,नस्ल ,रंग खानपान ,परम्परा ,शास्त्र, देश या महापुरुष का बचपन से अनुयायी होता है ,उनके प्रति उसका पूर्वाग्रह होता है ! उनका वह कभी भी तटस्थ भाव से मूल्यांकन नहीं कर सकता ! उसे अपनी चीजों में गुण ही गुण नजर आते हैं ! वह अपनी चीजों के दोषों को नजर अंदाज करता है या छिपाता है ! या युग अनुरूप व्याख्या करता है ! यही मानवजाति के ज्ञान विज्ञान का पहला सबसे बड़ा शत्रु पूर्वाग्रह है ! जिस जाति ,धर्म ,सम्प्रदाय ,नस्ल रंग ,भाषा,शास्त्र ,परम्परा ,खानपान, देश या महापुरुष से हमारा कुछ भी लेना देना नहीं है या वे हमारे विरोधी या शत्रु पक्ष के हों ! तब हम उनके प्रति दुराग्रह ग्रस्त होते हैं , हमें उनके गुणों में भी दोष नजर आने लगते हैं ! या हमें दोष ही दोष नजर आते हैं ! यही ज्ञान का दूसरा सबसे बड़ा शत्रु दुराग्रह है ! जो ज्ञान के इन दोनों शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर देता है ! चीजों को बिना राग- द्वेष या पूर्वाग्रह -दुराग्रह रहित दृष्टि से देखता है , वही मनीषी (या वैज्ञानिक) होता है , वही बुद्धत्व को प्राप्त कर पाता है ! यही विश्वगुरु महामानव तथागत बुद्ध की देशना है ! इसी सम्बन्ध में हमने एक दोहा लिखा है –
पूर्वाग्रह और दुराग्रह ,ज्ञान के दुश्मन दोय!
दोनों से मुक्ति मिले ,तो सत्य के दर्शन होय !!
पूर्वाग्रह -दुराग्रह या राग -द्वेष से मुक्त होना ही मुक्ति मोक्ष अनासक्तभाव ,निर्वाण या निजात है ! इसी को परमशांति कहते हैं ! यह जीते जी ही सम्भव है !
हम सब जानते हैं सामाजिक व्यवस्था में ‘समता’ यह एक श्रेष्ठ तत्व है. भारत के संविधान में इसे प्राथमिकता दी गयी है. समानतायुक्त समाज रचना, विषमता निर्मूलन इन विषयों पर काफी लिखा जाता है, चर्चा होती है और इसी का आधार लेकर समाज में भेद भी निर्माण किये जाते हैं. समता तत्व को लेकर स्वामी विवेकानन्द जी के चिंतन में भगवान बुद्ध के उपदेश का आधार मिलता है. वे कहते हैं ‘‘आजकल जनतंत्र और सभी मनुष्यों में समानता इन विषयों के संबंध में कुछ सुना जाता है, परंतु हम सब समान हैं, यह किसी को कैसे पता चले ? उसके लिए तीव्र बुद्धि तथा मूर्खतापूर्ण कल्पनाओं से मुक्त इस प्रकार का भेदी मन होना चाहिये. मन के ऊपर परतें जमाने वाली भ्रमपूर्ण कल्पनाओं का भेद कर अंतःस्थ शुद्ध तत्व तक उसे पहुंच जाना चाहिये. तब उसे पता चलेगा कि सभी प्रकार की पूर्ण रूप से परिपूर्ण शक्तियां ये पहले से ही उसमें हैं. दूसरे किसी से उसे वे मिलने वाली नहीं. उसे जब इसकी प्रत्यक्ष अनुभूति प्राप्त होगी, तब उसी क्षण वह मुक्त होगा तथा वह समत्व प्राप्त करेगा. उसे इसकी भी अनुभूति मिलेगी कि दूसरा हर व्यक्ति ही उसी समान पूर्ण है तथा उसे अपने बंधुओं के ऊपर शारीरिक, मानसिक अथवा नैतिक किसी भी प्रकार का शासन चलाने की आवश्यकता नहीं. खुद से निचले स्तर का और कोई मनुष्य है, इस कल्पना को तब वह त्याग देता है, तब ही वह समानता की भाषा का उच्चारण कर सकता है, तब तक नहीं.’’ (भगवान बुद्ध तथा उनका उपदेश स्वामी विवेकानन्द, पृष्ठ ‘28)
निसर्ग के इस महान तत्व का विस्मरण जब व्यवहारिक स्तर के मनुष्य जीवन में आता है, तब समाज जीवन में भेदभाव युक्त समाज रचना अपनी जड़ पकड़ लेती है. समय रहते ही इस स्थिति का इलाज नहीं किया गया तो यही रूढ़ी के रूप में प्रतिस्थापित होती है. भारतीय समाज के साथ यही हुआ है. समता का यह सर्वश्रेष्ठ, सर्वमान्य तत्व हमने स्वीकार तो कर लिया, विचार बुद्धि के स्तर पर हमने मान्यता तो दे दी परंतु इसे व्यवहार में परिवर्तित करने में असफल रहे. ‘समता’ इस तत्व को सिद्ध और साध्य करने हेतु ‘समरसता’ यह व्यवहारिक तत्व प्रचलित करना जरूरी है. समरसता यह भावात्मक तत्व है और इसमें ‘बंधुभाव’ के तत्व को असाधारण महत्ता दी जाती है. विवेकानंद तो कहा करते थे, ‘‘बंधुता यही स्वतन्त्रता तथा समता का आश्वासन है. स्वतंत्रता तथा समता की रक्षा कानून से नहीं होती.’’
समरसतापूर्वक व्यवहार से स्वातंत्र, समता और बंधुता इन तीन तत्वों के साध्य तक हम पहुंच सकते हैं. दुर्भाग्य से इन तीन तत्वों के आधार पर हिन्दू समाज की रचना नहीं हुई है. जिस समाज रचना में उच्च तत्व व्यवहार्य हो सकते हैं, वही समाज रचना सब में श्रेष्ठ है. जिस समाज रचना में वे व्यवहार्य नहीं हो सकते, उस समाज रचना को भंग कर उसके स्थान पर शीघ्र नयी रचना बनायी जाये, ऐसा स्वामी विवेकानन्द का मत था.
भारत के गरीब, भूखे-कंगाल, पिछड़े, घुमंतु समाज के लोगों को शिक्षा कैसे दी जाए? गरीब लोग अगर शिक्षा के निकट पहुंच न पा रहे हों तो शिक्षा उनके तक पहुंचना चाहिए. दुर्बलों की सेवा यही नारायण की सेवा है. दरिद्र नारायण की सेवा, शिव भावे जीव सेवा यह रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी विवेकानन्द जी द्वारा दिखाया हुआ मार्ग है. लोक शिक्षण तथा लोकसेवा के लिए अच्छे कार्यकर्ता होना जरूरी हैं. कार्यकर्ता में सम्पूर्ण निष्कपटता, पवित्रता, सर्वस्पर्शी बुद्धि तथा सर्व विजयी इच्छा शक्ति इस सभी की आवश्यकता है. इन गुणों के बल पर मुट्ठीभर लोग भी यदि काम करने में जुट गये, तो सारी दुनिया में क्रांति हो जायेगी.